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स्त्री को पुकारता है स्वप्न

गीताश्री

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 17298
आईएसबीएन :9789350725375

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औरत की आवाज़, प्रतिरोध की गूंज — कहानियाँ जो रूढ़ियों को तोड़ती हैं, संवेदना जगाती हैं और अपना हक़ तय करती हैं।

गंगाजी के निर्मल धार लेखिका विभा रानी

प्रस्तुत कहानी तुगुनी की जीवनधार है, जो तमाम कूड़ा-करकट, पवित्र-अपवित्र बहा ले जाती है फिर भी निर्मल रहती है। समाज की लांछनाओं, दोषारोपणों को हँस कर टालने का गुर सीख जाती है और दया की पात्र नहीं, ईर्ष्या की पात्र बन जाती है, समाज में स्त्री की जगह, पुरुष वर्चस्व प्रधान समाज की मान्यताओं को ठेंगा दिखाती, अपने अधिकार और अपना स्पेस खुद तय करती है। प्रतीकात्मक शीर्षक, सधी हुई वाक्य संरचना कहानी को प्रभावी बनाती है। अपने वजूद के लिए संघर्ष करती, नयी स्त्री की कहानी है, गंगाजी के निर्मलधार !

वेटिंग टिकट लेखिका अर्चना साहु

इंसानियत का जज़्बा जीवन में छोटी-मोटी तकरारों, समस्याओं से लेकर पति-पत्नी के रिश्तों में आपसी समझ और सौहार्द की खुशबू कैसे भर देता है, इसका जीवन्त साक्ष्य है यह कहानी। वेटिंग टिकट कहानी, बिना गुठिल हुए क्रूर और संवेदनहीन व्यवहार को आपसी समझ और इंसानियत के जज़्बे से बदल देती है। कथा प्रवाह में सहजता है। आज के संवेदनहीन होते समाज के लिए ऐसी कहानियों का स्वागत होना चाहिए।

बरक्स लेखिका अमृता ठाकुर

पति-पत्नी के रिश्ते को केन्द्र में रखती, दाम्पत्य जीवन के उतार-चढ़ाव को रेखांकित करती इस कहानी में प्रतीक और प्रकृति के माध्यम से इसी स्थिति को दिखाया गया है। प्रतीक के जीवन में अर्वान का आना, उसकी पत्नी प्रकृति को अकेला कर देता है ऐसे में प्रकृति विवाह पूर्व के दोस्त से जुड़ने लगती है। पति का सुपर ईगो पत्नी के जीवन में दूसरे पुरुष को सह नहीं पाता। पुरुष मानसिकता के दोहरे मापदंड को नकारती कहानी स्त्री को पुरुष के समकक्ष रखती है। अपने एकान्त कोने को भरने के लिए प्रेमिका रखना उसके लिए ठीक है, पर पत्नी के लिए क्यों नहीं ?

रुख़साना लेखिका प्रज्ञा तिवारी

आर्थिक विवशताओं में जाया होता बचपन और दैहिक-मानसिक शोषण की शिकार होती गरीब स्त्री को फोकस में रखती लेखिका एक आशंका के साथ कहानी को अन्त तक ले जाती है, क्या रोटी पाने और जीने की जरूरी शर्तें, एक दिन निर्दोष औरतों वाली 'रुख़साना' को भी किसी 'मालिक' की गाड़ी में बिठाकर 'बैंक' ले जाएगी।

प्रगति के दावों को खारिज करती, गरीबों के दूसरे शोषण की झलक पर दिखती, लेखिका व्यवस्था पर तंज करती है और पाठक के मन में संवेदना का उत्खनन भी।

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